होली 2025: होली सनातन धर्म के प्रमुख त्योहारों में से एक है। हमारी लोक परंपराओं में समय के साथ कई लोक कथाएं जुड़ गई हैं, लेकिन इनमें से किसी का भी शास्त्रों में उल्लेख नहीं है। होली को प्रायः प्रहलाद और होलिका के साथ जोड़ा जाता है, और इसे जलाने की प्रक्रिया को एक तरह से प्रमाणित किया जाता है।
हालांकि, इस पर्व का एक संक्षिप्त उल्लेख नारद पुराण के पूर्व भाग, चतुर्थ पाद, अध्याय 124 में मिलता है, जहाँ लिखा है कि “होलिका प्रहलाद को भय देने वाली राक्षसी थी।” किन्तु किसी भी शास्त्र में यह नहीं मिलता कि प्रहलाद ने होलिका को जिंदा जलाया या होलिका किसी विशेष जाति से थी। ये सब कथाएं हैं, जो समय-समय पर हमारी परंपराओं में रची-बसी हैं।
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वास्तव में, होली मनाने का कारण भविष्य पुराण में दिया गया है, जो इन लोक कथाओं से बिलकुल विभिन्न है। भविष्य पुराण के उत्तर पर्व 132 के अनुसार, महाराज युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन की पूर्णिमा को उत्सव क्यों मनाया जाता है और सभी जगह होली क्यों जलती है? इस दिन बच्चे घर-घर में शोर मचाते हैं, इसका क्या कारण है? ‘अडाडा’ किसे कहते हैं और किस देवता का पूजन किया जाता है?
भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि सत्ययुग में रघु नामक एक राजा थे, जिन्होंने समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर राजाओं को अपने अधीन कर प्रजा का पालन किया। उनके राज्य में कभी भी दुर्भिक्ष नहीं हुआ और न ही किसी की अकाल मृत्यु हुई। लोग अधर्म में रुचि नहीं रखते थे, लेकिन एक दिन नागरिक अचानक राजद्वार पर इकट्ठा होकर ‘त्राहि, त्राहि’ पुकारने लगे।
राजा ने भयभीत लोगों से कारण पूछा। उन्होंने कहा कि ढोंढा (होलिका) नाम की एक राक्षसी प्रतिदिन हमारे बच्चों को कष्ट देती है और उस पर किसी मंत्र-तंत्र, औषधि आदि का असर नहीं होता। तब राजा ने राज्य के पुरोहित महर्षि वसिष्ठ से इस राक्षसी के बारे में पूछा। उन्होंने राजा को बताया कि माली नामक एक दैत्य है, जिसकी पुत्री ढोंढा है।
ढोंढा ने लंबे समय तक कठोर तपस्या की और भगवान शिव को प्रसन्न किया। भगवान शिव ने उसे वरदान देने का कहा, तब ढोंढा ने यह वरदान मांगा कि देवता, दैत्य, और मनुष्य उसे न मार सकें और अस्त्र-शस्त्र आदि से भी उसका वध न हो। साथ ही, उसे दिन, रात, शीतकाल, उष्णकाल, और वर्षाकाल में किसी से भय न हो।
भगवान शंकर ने ‘तथास्तु’ कहा और यह भी बताया कि उसे उन्मत्त बच्चों से भय होगा। इस तरह वरदान देकर भगवान शिव अपने धाम को चले गए। वही ढोंढा, कामरूपिणी राक्षसी, नित्य बच्चों को पीड़ा देती है। ‘अडाडा’ मंत्र का उच्चारण करने पर वह शांत हो जाती है, इसलिए उसे अडाडा भी कहा जाता है। यही ढोंढा का चरित्र है। अब मैं इस समस्या से मुक्ति का उपाय बता रहा हूँ।
आज फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को सभी लोगों को निडर होकर खेलना चाहिए, नाचना, गाना और हंसना चाहिए। बच्चे लकड़ियों से बनी तलवार लेकर वीर सैनिकों की भांति हर्ष के साथ युद्ध के लिए उत्सुक हो दौड़ें और आनंद मनाएं।
सूखी लकड़ी, उपले, और सूखी पत्तियों को एक जगह इकट्ठा कर उस ढेर में मंत्रों से अग्नि लगाकर हवन करें और हंसते हुए ताली बजाएं। उस जलते ढेर के तीन बार परिक्रमा कर बच्चे और बड़े सभी आनंददायक संवाद करें और प्रसन्न रहें। इस प्रकार रक्षामंत्रों, हवन, और बच्चों द्वारा तलवार के प्रहार के भय से उस दुष्ट राक्षसी का निवारण हो जाता है।
महर्षि वसिष्ठ के इस वचन को सुनकर राजा रघु ने पूरे राज्य में लोगों को इसी तरह उत्सव मनाने का निर्देश दिया और स्वयं भी इसमें सहयोग किया, जिससे वह राक्षसी विनष्ट हो गई। उसी दिन से इस लोक में ढोंढा का उत्सव प्रसिद्ध हुआ और अडाडा की परंपरा चली। ब्राह्मणों द्वारा सभी दुष्टों और सभी रोगों को शांत करने वाला हवन इस दिन किया जाता है, इसलिए इसे होलिका भी कहा जाता है।
यह फाल्गुन की पूर्णिमा तिथि सभी तिथियों का सार और परम आनंद देने वाली है। इस दिन रात को बच्चों की विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए। गोबर से लिपे-पुते घर के आँगन में लकड़ी के खड्ग लिए बच्चों को बुलाना चाहिए और घर में रक्षित बच्चों को काष्ठ निर्मित खड्ग से स्पर्श कराना चाहिए। हंसना, गाना, बजाना, नाचना आदि कर उत्सव के बाद गुड़ और विशेष पकवान बना कर बच्चों को देना चाहिए। इस विधि से ढोंढा का दोष अवश्य शांत हो जाता है।
महाराज युधिष्ठिर ने पूछा कि दूसरे दिन चैत्र मास से वसंत ऋतु का आगमन होता है, उस दिन क्या करना चाहिए?
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि होली के दूसरे दिन प्रतिपदा में प्रातः काल उठकर आवश्यक नित्यक्रियाओं से निवृत्त होकर पितरों और देवताओं के लिए तर्पण-पूजन करना चाहिए और सभी दोषों की शांति के लिए होलिका की विभूति को वंदन करके उसे अपने शरीर में लगाना चाहिए। घर के आँगन को गोबर से लीपकर उसमें एक चौकोर मंडल बनाकर उसे रंगीन अक्षतों से अलंकृत करना चाहिए।
उस पर एक पीठ रखना चाहिए और उस पीठ पर स्वर्ण सहित पल्लवों से समन्वित कलश स्थापित करना चाहिए। उसी पीठ पर श्वेत चंदन भी स्थापित करना चाहिए। सौभाग्यवती स्त्री को सुंदर वस्त्र, आभूषण पहनाकर दही, दूध, अक्षत, गंध, पुष्प आदि से उस खंड की पूजा करनी चाहिए। फिर आम के पत्तों सहित उस चंदन का प्राशन करना चाहिए। इससे आयु की वृद्धि, आरोग्य की प्राप्ति और समस्त कामनाएं सफल होती हैं।
भोजन के समय पहले दिन का पकवान थोड़ा-सा खाकर इच्छानुसार भोजन करना चाहिए। इस विधि से जो फाल्गुन उत्सव मनाते हैं, उनके सभी मनोरथ अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं। आधि-व्याधि सभी का विनाश हो जाता है और वह पुत्र, पौत्र, धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाता है। यह परम पवित्र, विजयदायिनी पूर्णिमा सब विघ्नों को दूर करने वाली है और सभी तिथियों में श्रेष्ठ है।
इस प्रकार हमें यह समझ में आता है कि होली का कोई भी प्रसंग “प्रहलाद ने होलिका जिंदा जलाया” से संबंधित नहीं है। यह जन चेतना का लोकोत्सव है, ऋतु बदलने का सुगम अवसर है और सामाजिक सौहार्द का प्रतीक है।
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