करीब डेढ़ साल पहले, मरीजों की विभिन्न प्रकार की मेडिकल जांचों को सुगम बनाने के लिए 13 सरकारी मेडिकल कॉलेजों की पैथोलॉजी लैब का निजीकरण किया गया था। इस प्रक्रिया में, सरकार ने अपनी ओर से कंपनियों को 5 से 8 हजार वर्गफीट तक की लैब स्थापित करने के लिए आवश्यक संसाधन प्रदान किए। इसके साथ ही, इन्फ्रास्ट्रक्चर और एनएबीएल/एनएबीएच सर्टिफिकेशन के खर्च का भी वहन किया गया।
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इस कदम का उद्देश्य था कि जांच की दरें कम हों, लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत निकल आई। निजीकरण के बाद जांच की दरों में 14 से लेकर 600 प्रतिशत तक की वृद्धि हो चुकी है। इसके चलते, सरकार को हर साल निजी कंपनियों को 200 करोड़ रुपये तक का भुगतान करना पड़ रहा है। इसके अलावा, सर्दी-जुकाम और ज्वाइंट पेन के मरीजों के लिए भी महंगी जांचें की जा रही हैं, जिससे बिलिंग में इजाफा हो रहा है।
सरकार ने कंपनी को 8 हजार वर्गफीट तक की लैब और एनएबीएल सर्टिफिकेशन प्रदान किया, जबकि कंपनी को केवल दो कंप्यूटर ऑपरेटर, एक सुपरवाइजर, मशीन के रखरखाव और रिएजेंट तक सीमित जिम्मेदारियों के साथ काम करने की इजाजत दी गई। विशेषज्ञों के अनुसार, किसी भी पैथोलॉजी जांच में रिएजेंट का खर्च केवल 10 से 15 प्रतिशत होता है। इसका तात्पर्य यह है कि सभी खर्च सरकार उठाएगी, जबकि मुनाफा पूरी तरह से कंपनी का होगा।
जांच की जिम्मेदारी संभाल रही हिंदुस्तान अरनील क्लीनिकल लैब्स (एचएसीएल) और मेडिकल कॉलेजों के बीच हुए एग्रीमेंट के अनुसार, जांच की दरें चौंकाने वाली हैं। जैसे, एम्स भोपाल में जो टेस्ट 300 रुपये में होता है, वही मेडिकल कॉलेजों में 550 रुपये में किया जा रहा है। चंडीगढ़ पीजीआई में 200 रुपये का जो टेस्ट है, उसके लिए सरकार निजी कंपनी को 460 रुपये का भुगतान कर रही है।
राजेंद्र शुक्ला, जो डिप्टी सीएम और स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा मंत्री हैं, को यह देखना होगा कि कहीं फर्जी बिलिंग तो नहीं हो रही है। जिस कंपनी को कॉन्ट्रेक्ट दिया गया है, वह कई गुना अधिक बिल वसूल कर रही है। हर मेडिकल कॉलेज में जांच की गुणवत्ता को लेकर भी प्रश्न उठाए जा रहे हैं। डीन से कई शिकायतें की गई हैं, लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।